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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान कैसे मिलें

भगवान कैसे मिलें

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1061
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है भक्त को भगवान कैसे मिलें....

भगवान्की भक्ति करें

मेरी मान्यता है कि महापुरुषोंके दर्शन, भाषण, स्पर्श एवं उनकी चरण-धूलि धारण करनेसे मनुष्य पवित्र हो जाता है। पवित्रताकी सीमा भगवत्प्राप्तितक है। अपने-अपने भावके अनुसार लाभ होता है, यह बात शास्त्रसम्मत एवं युक्तिसंगत है।

भगवान् और महापुरुषोंकी दृष्टिमें तो भेदभाव है नहीं। सूर्यभगवान् सारे भूमण्डलको प्रकाशित करते हैं, किन्तु काठमें प्रतिबिम्ब नहीं आता, काँच और जलमें आता है। सूर्यभगवान् तो सबको समानरूपसे प्रकाशित करते हैं।

विवेकबुद्धिसे विचार करेंगे तो मालूम होगा कि उज्ज्वल पदार्थकी विशेषता है। वही काँच सूर्यमुखी हो तो वह वस्त्रको भी जला सकता है। इसी प्रकार जिनका अन्त:करण शुद्ध होता है, उनपर महात्माओं एवं भगवान्का असर पड़ता है। सूर्यमुखी काँचकी तरह वह महात्माओंके भावोंको अपनेमें खींच लेता है। भगवान् कहते हैं-

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।
(गीता ९।२९)

मैं सब भूतोंमें समभावसे व्यापक हूँ न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है; परन्तु जो भक्त मुझको प्रेमसे भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ।

वह अपने प्रेमके जोरसे मुझे आकर्षित कर लेता है। प्रेमके वशीभूत महात्मा एवं भगवान् हो जाते हैं। प्रेम ऐसी चीज है, जिसके द्वारा आप चाहे जिसे वशीभूत कर सकते हैं।

भगवान्ने अर्जुन को भी विराट् रूप दिखाया एवं दुर्योधन को भी विराट्रूप दिखाया। जिसका जैसा भाव होता है, उसीके अनुसार उसे फल मिलता है।

उन महापुरुषोंको श्रद्धा तथा प्रेमसे ही जाना जा सकता है, कहीं श्रद्धा शब्द आ जायगा कहीं प्रेम शब्द आ जायगा।

सुननेके परायण हो जाय फिर प्राणपर्यन्त उसके लिये चेष्टा करे। भगवान् रामचन्द्रजीको माता कौशल्याने समझाया कि यदि तुम मेरी आज्ञा नहीं मानकर वनको जाओगे तो मैं उपवासके द्वारा प्राण त्याग दूँगी, तुम्हें पाप लगेगा। वहाँ बहुत आग्रह किया है। भगवान् रामने उत्तर दिया-माता! पिताके वचनोंको नहीं माननेकी - मेरी सामथ्र्य नहीं है, मैं अग्निमें कूद सकता हूँ, तीव्र विषका भी भक्षण कर सकता हूँ और समुद्रमें भी गिर सकता हूँ, सीताका त्याग कर सकता हूँ पर पिताके वचनोंका त्याग नहीं कर सकता।

अहं हि वचनाद राज्ञः पतेयमपि पावके।
भक्षयेयं विषं तीक्षणां पतेयमपि चार्णवे।।

उनका मुखमण्डल खूब प्रसन्न हो रहा है। उनको राज्य मिलनेवाला था अब वनवास होनेवाला है। पिताके वचनोंमें कितनी श्रद्धा है। लक्ष्मणको क्रोध भी आ गया, कहा-दशरथका सिर काटकर मैं आपको राज्य दे दूँगा, कोई स्त्रीके वशीभूत होकर कह दे तो उनकी आज्ञाका पालन हम नहीं करेंगे।

भगवान् रामने कहा-मेरी इच्छा राज्य करनेकी नहीं है। लक्ष्मणजी भी वन जानेको तैयार हो गये, उनका एक ही धर्म था भगवान्के अनुकूल होना।

इसी प्रकार हम भी भगवान्की शरण हो जायँ। प्रह्लादने भगवान्की शरण ले ली फिर पिताकी आज्ञा नहीं मानी, पाप नहीं लगा। भरतजीने भगवान्के प्रेमके लिये अपनी माताके भगवान्के लिये मनुष्य सब कुछ त्याग कर सकता है।

भगवान् के लिए मनुष्य सब कुछ त्याग कर सकता है। भगवान् तो कहते हैं सब छोड़कर मेरी शरण आ जा। भगवद्धतिके लिये माता, पिता, गुरु, पति, इनकी भी आज्ञा त्याग दे तो भी आपत्ति नहीं है। भगवान्की भक्तिमें बाधा पहुँचानेवालेके लिये तुलसीदासजीने कहा है-

जरउ सो संपति सदन सुखु सुहृद मातु पितु भाइ।
सनमुख होत जो राम पद करे न सहस सहाइ।।

यह प्रेमकी बात है। प्रेमके आगे नीति गौण हो जाती है। नीति यह है-

अनुचित उचित बिचारु तजि जे पालहिं पितु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन।।

मेरे द्वारा महापुरुषोंकी सेवा विशेष नहीं बनी पर वार्तालाप, दर्शन, भाषण, चिन्तन, प्रणामका काम पड़ा है। मेरी जैसी श्रद्धा थी उसके अनुसार लाभ भी मिला, इसलिये यह बात युक्तिसंगत मालूम देती है। संगका असर प्रत्यक्षमें पड़ता है, रोगीके संगसे रोगी, भोगीके संगसे भोगी, योगीके संगसे योगी बन जाते हैं। प्रत्यक्ष फल है। इस हाथ करो, उस हाथ लो। भजन, सत्संगका प्रत्यक्ष फल दिखाया है, किन्तु उसकी मात्रा श्रद्धा और प्रेमपर निर्भर है। जितना श्रद्धा-प्रेम है उतना ही उसे लाभ मिलता है। सत्संगकी बात हो रही है खूब भाव पैदा हो रहा है। सत्संगसे उठनेके बाद फिर जैसे बुखार उतरे उस तरह भाव कम हो जाता है, सदा कायम नहीं रहता। खूब जोरसे भजन करे तो स्वाभाविक ही वैराग्य होगा। चित्तकी प्रसन्नता बढ़नेपर तो होता है, बादमें कम हो जाता है। इसका कारण यह है कि यहाँ जबतक लालटेन रखी हो तबतक तो प्रकाश रहेगा, कोई लालटेन ले जाय तो अन्धेरा हो जाय, महापुरुष लालटेन हैं। 

बड़े तो भगवान् ही हैं, किन्तु भगवान्ने भक्तोंकी प्रशंसा की है। भगवान् स्वयं तो भक्तिका प्रचार करते नहीं, भक्त ही करते हैं। भगवान्को काम निकालना था इसलिये भक्तोंकी प्रशंसा कर दी। हमलोग भी यही करें जिससे काम निकालना हो उसकी खूब प्रशंसा करें। भगवान्ने हमें यह चालाकी सिखा दी। यह विनोद है, भगवान्में कोई चालाकी नहीं है। भगवान् अपने भक्तोंकी प्रशंसा प्रेमसे ही करते हैं। यह कहना कि लोभ देकर उन्हें ठगते हैं यह विनोद है।

भगवान्की परीक्षा बड़ी कड़ी है, उसमें भी उनकी अहैतुकी दया है। लड़केके फोड़ा हो जाता है, माँ बाप चीरा लगवाते हैं, यह उनकी दया है।

मयूरध्वजका लड़का रतनकुंअर था। भगवान्ने साधुके भेषमें आकर कहा-इसको चीरकर दे दी। मनुष्य इस प्रकारका व्यवहार करेगा क्या? कितनी निर्दयता है पर इसमें भी दया है। उसको चीरनेके समय शरीरके जिस हिस्सेका दान नहीं होता था उस हिस्सेसे आँसू छलक पड़े। देखकर भगवान् कहते हैं-मुझे आधा शरीर नहीं चाहिये, यह बालक रोता है। राजाने समझाया शरीरके इस अंगसे अश्रु इसलिये निकल पड़े कि शरीरका यह हिस्सा ब्राह्मणकी सेवा में नहीं आया। वे स्वयं भी भगवान्की दया मानते हैं। अन्तमें वर माँगा तो यही माँगा कि भविष्यमें किसीकी ऐसी घोर परीक्षा मत लीजियेगा। कलियुगमें तो ऐसी परीक्षामें फेल ही हैं।

मैं तो कह देता हूँ कि मैं पद-पदमें फेल हूँ यह घोर कलिकाल है, तेरा नाम पतितपावन है, यह सुनकर मैं तेरे दरवाजेपर आया हूँ परीक्षा लेंगे तो फेल हो जाऊँगा। परीक्षाका पात्र वही है जो अभिमान रखता हो कि मैं परीक्षा दे सकता हूँ। पर वह पद-पदमें परीक्षा लेता रहता है, उसका स्वभाव पड़ गया है। मासिक, दैनिक परीक्षा होती है। इसी तरह भगवान् दैनिक परीक्षा लेते हैं। इसी तरह भगवान् दैनिक परीक्षा लेते हैं।

गुरु गोविन्दसिंह पुत्रों को भगवान् ने दीवार में चुनवा दिया, यह विशेष दया है। हमलोग भी हर समय तैयार ही रहते हैं, हम भी तो भगवान्के ही चेले हैं।

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।
(गीता १५।७)

इस देहमें यह सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है और वही इस प्रकृतिमें स्थित मन और पाँचों इन्द्रियोंको आकर्षण करता है।

बाप जैसा काम करेंगे वही तो बेटे करेंगे। इतना अन्तर है कि उसकी परीक्षा ठीक है, अपनी गड़बड़ है। हमलोगोंके पास जो आते हैं सबको कसौटीपर कस लेते हैं, परन्तु वह कसौटी झूठी है, हम सर्वज्ञ नहीं हैं। भगवान् सर्वज्ञ हैं, पर हम सबकी परीक्षा करते हैं, यह आदत है। हर समय क्षण-क्षणमें आप हमारी परीक्षा लेते हैं और मैं आपकी परीक्षा लेता हूँ।

श्रद्धा सदा सबकी एक-सी नहीं रहती, इसमें क्या हेतु है? अभी ऐसा समझते हो, फिर थोड़ी देरमें दूसरा समझते हो।

कसना चाहते हो, किन्तु कसौटी झूठी है। जिस समय सदाचार, देखनेसे श्रद्धा कम होती है। अवगुणों की तरफ देखने से श्रद्धा कम होती है।

जीव अल्पज्ञ है, भूल पद-पदपर होती है। कसौटी अलग-अलग है। एक नम्बर भगवान्की कसौटी है, इसमें फर्क नहीं पड़ता। दो नम्बर कसौटी भगवत्प्राप्त पुरुषोंकी है, इसमें थोड़ा फर्क पड़ता है। तीन नम्बर सर्वसाधारण तथा अपने-आपके लिये कसौटी है। इसमें सौमें निन्यानबेमें फर्क पड़ेगा, हाँ अपने-आपके लिये कल्पना करनेमें थोड़ा फर्क पड़ता है।

शास्त्रमें ईश्वर-प्रासिका उपाय सुगम बताया गया है, दूसरी दृष्टिसे देखते हैं तो बड़ा कठिन लगता है। मात्र मनुष्योंमें हर एक काममें दो दृष्टि है। हमलोग विचार करते हैं कि साधनके विषयमें ऐसा करेंगे, ये करेंगे, उस समय सरल मालूम पड़ता है। उस काममें उतरते हैं तो कठिन मालूम देता है। सत्य-पालनकी बात करने, सुननेमें सुगम मालूम देती है, काममें उतरनेमें कठिन है। खयाल करें तो वज्रकी तरह कठिन है। भगवान्के उपदेशकी तरफ देखें तो फूलकी तरह सरल है। इसीकी ओर खयाल करो-

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।
यज्ज्ञात्वा न पुनमोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।।

उस ज्ञान के तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ उनको भलीभाँति दण्डवत्-प्रणाम करनेसे, उनकी सेवा करनेसे और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे परमात्मतत्त्वको भलीभाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञानका उपदेश करेंगे।

जिसको जानकर फिर तू इस प्रकार मोहको नहीं प्राप्त होगा तथा हे अर्जुन! जिस ज्ञानके द्वारा तू सम्पूर्ण भूतोंको नि:शेषभावसे पहले अपनेमें और पीछे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मामें देखेगा।

तीन बात बतायी-साष्टांग प्रणाम करो, सेवा करो, बातचीत करो। बातचीत करना कितनी सीधी बात है, अनुष्ठानमें लाना बड़ा कठिन है। बच्चोंको नित्य कहते हैं माँ-बापको प्रणाम किया करो तो उन्हें शर्म आती है। माता-पितासे पलकर तुम बड़े हुए है। ऐसा करनेवाला असली रज-वीर्यसे पैदा नहीं है। उसको क्या कभी भगवान् मिल सकते हैं?

मनुने कहा है-माता, पिता, आचार्य इनकी सेवा ही परम धर्म है बाकी धर्म उपधर्म है। नित्य उठकर उनके चरणोंमें प्रणाम करे। श्रुति कहती है-मातृदेवो भव, पहले पितृदेवो भव नहीं उतना और कोई नहीं सहता। माता, पिताकी सेवासे ही उद्धार हो सकता है। स्त्रीका पतिकी सेवासे कल्याण हो जाता है।

स्वार्थत्यागसे परमात्माकी प्राप्ति होती है, यह बात सुननेमें सुगम है, परन्तु काम पड़नेपर बड़ी कठिन मालूम देती है। अपना स्वभाव बाधा पहुँचाता है। विवेकी पुरुषको भी इन्द्रियाँ कुमार्गमें ले जाती हैं।

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।
(गीता २।६०-६१)

हे अर्जुन! आसक्तिका नाश न होनेके कारण ये प्रमथनस्वभाववाली इन्द्रियाँ यल करते हुए बुद्धिमान् पुरुषके मनको भी बलात् हर लेती हैं।

इसलिये साधककी चाहिये कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियोंको वश में करके समाहितचित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे क्योंकि जिस पुरुषकी इन्द्रियाँ वश में होती है उसीकी बुद्धि स्थिर हो जाती है।

इन्द्रियाँ जिस विषय के लिये दौड़े, उन्हें उससे हटाने और मनको वशमें करके मेरे परायण हो। भगवान्की शरण होने से यह स्वतः ही वश में हो जायँगी, इससे सरल नहीं है। मन वशमें करनेके लिये महर्षि पतञ्जलिने अभ्यास और वैराग्य दो उपाय बताये हैं। अन्तमें सरल उपाय बताया-

ईश्वर प्रणिधानाद्वा।

अपने स्वभावकी तरफ खयाल करनेसे तो हमारा उद्धार होना कठिन मालूम देता है, भगवान् की तरफ ख्याल करने से बड़ा सरल है।

जौं करनी समुझे प्रभु मोरी। नहिं निस्तार कलप सत कोरी।
जन अवगुन प्रभु मान न काऊ। दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ।।
मोरे जियें भरोस दूढ़ सोई। मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई।

हम अपने आचरणोंके तरफ देखें तो उद्धार होनेका कोई रास्ता नहीं है, भगवान्की दयाकी ओर देखें तो बहुत सुगम है। भगवान् कहते हैं-

सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।।
(गीता ५।।२९)

मुझे सम्पूर्ण भूत-प्राणियोंका सुहृद् अर्थात् स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, ऐसा तत्त्वसे जानकर शान्तिको प्राप्त होता है।

इसलिये भगवान्की शरण ही उपाय है। भगवान् भक्ति करनेवालेके दोषोंकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते। कोई हमारी आज्ञा माननेवाला है, वह दो बात भी सुना दे तो हम कुछ नहीं बोलते, यह विषमता हुई। भगवान् भी इस विषमतासे नहीं बचते। भगवान् अपने दासोंके दोषोंकी ओर क्यों नहीं देखते?

दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ।

यह भगवान्की विषमता नहीं है, यह भूषण है।

सार यही है कि भगवान्की शरण होना चाहिये। कलियुगमें सबके लिये एक ही साधन है, भगवान्की भक्ति करे। चाहे मनको वशमें करनेके लिये कहो, पापोंके नाशके लिये या भगवान्के प्रेमके लिये, बस भक्ति करो।

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    अनुक्रम

  1. भजन-ध्यान ही सार है
  2. श्रद्धाका महत्त्व
  3. भगवत्प्रेम की विशेषता
  4. अन्तकालकी स्मृति तथा भगवत्प्रेमका महत्त्व
  5. भगवान् शीघ्रातिशीघ्र कैसे मिलें?
  6. अनन्यभक्ति
  7. मेरा सिद्धान्त तथा व्यवहार
  8. निष्कामप्रेमसे भगवान् शीघ्र मिलते हैं
  9. भक्तिकी आवश्यकता
  10. हर समय आनन्द में मुग्ध रहें
  11. महात्माकी पहचान
  12. भगवान्की भक्ति करें
  13. भगवान् कैसे पकड़े जायँ?
  14. केवल भगवान्की आज्ञाका पालन या स्मरणसे कल्याण
  15. सर्वत्र आनन्दका अनुभव करें
  16. भगवान् वशमें कैसे हों?
  17. दयाका रहस्य समझने मात्र से मुक्ति
  18. मन परमात्माका चिन्तन करता रहे
  19. संन्यासीका जीवन
  20. अपने पिताजीकी बातें
  21. उद्धारका सरल उपाय-शरणागति
  22. अमृत-कण
  23. महापुरुषों की महिमा तथा वैराग्य का महत्त्व
  24. प्रारब्ध भोगनेसे ही नष्ट होता है
  25. जैसी भावना, तैसा फल
  26. भवरोग की औषधि भगवद्भजन

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